भारतवर्ष का अधिकाँश हिस्सा हरे रंग में रंग चुका था। यवनों का झंडा एक खूनी पंजे की भाँती भारत वासियों के गले को पकडे हुआ था। इन विदेशी मल्लेछों से मुठभेड़ में राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान,महाराणा प्रताप और हेमचंद विक्रमादित्य समेत न जाने कितने बलिदान हो गए थे।
वास्तव में महमूद गजनवी के आक्रमण से लेकर यवनों में विजयी लहर इतने प्रबल वेग से बढ़ी की उसका कोई मुकाबला न कर सका। लेकिन अब यह लहर मानो एक विकराल रूप ले चुकी थी। तभी सह्याद्रि पर्वत की चोटी से १५ वर्ष के नवयुवक की आवाज आती है , "बस अब जहाँ तक तुम्हे बढ़ना था तुम बढ़ चुके, अब और आगे नहीं बढ़ सकते" ये शब्द थे छोटे से "शिव बा" के, जिन्हे आज हम "छत्रपति शिवाजी महाराज" के नाम से जानते हैं।
जो कोई न कर सका, वो शिवाजी ने कैसे किया?
जब जब भारत की पवित्र भूमि पर किसी विदेशी ने पाँव रखा है , उसका सामना हिन्दू जाति के वीर सपूतों ने जान हथेली पर रखकर किया है। किन्तु वर्ष १६२७ के पहले जहाँ कही भी हिन्दुओ और विदेशी आक्रांताओ की मुठभेड़ हुई। सदा हिन्दुओं को ही पराजय उठानी पड़ी। और यह पराजय उनके नेता के सहसा गुम हो जाने के कारण होती थी या उनके किसी मंत्री या सेनापति के विश्वासघात के कारण । लेकिन १६२७ के बाद मानो ईश्वर हिन्दुओं के साथ हो गया था । इस परिवर्तन का मूल कारण था "हिन्दू पद्पादशाही का आदर्श"। अर्थात हिन्दू साम्राज्य की स्थापना। इसी आदर्श ने समस्त भारत वर्ष के नेताओ को दृढ विश्वास के साथ उभारा , बिखरी हुई शक्तियां एक होने लगी , और उन सबके हित एक हो गए। क्योंकि अधिकांश हिन्दू जनमानस इस बात को समझ गए की अब यह लड़ाई कोई प्रांतीय या व्यक्तिगत नहीं बल्कि सार्वदेशिक और धार्मिक लड़ाई है ।
एक चिंगारी, जो मुगलो पर ज्वालामुखी बनकर फटी
जैसे जैसे शिव बा की आयु बढ़ती गयी। वह हिन्दू जाति की परतंत्रता को अनुभव करके विशेष दुखी होते गए। उनकी माता जीजाबाई ने बाल्यकाल में ही उनका मन श्री राम, कृष्ण , राजा हरिश्चंद्र , अभिमन्यु की वीरता पूर्ण संकीर्त्तियों से भर दिया था। अब शिव बा अपने जीवन को गुलामों की भाँती कलंकित व् हास्यास्पद नहीं बनाना चाहते थे जिन्होंने अपने तुच्छ सुखो के लिए अपनी पवित्र आत्मा को विदेशियों के हाथों बेच दिया हो। उनके सामने एक महान लक्ष्य था , उसको हासिल करने की वीरता उनके रग रग में समाहित हो चुकी थी । अब समय था इन विदेशी मल्लेछों के विरुद्ध युद्धघोष का। जल्द ही पूना और सूपा की छोटी जागीरों का उचित प्रबंध करके तथा अपने बारह माबलों को पूर्ण रूप से संगठित करने के बाद शिवाजी ने मात्र १६ वर्ष की आयु में कुछ प्रमुख वीरों के साथ उस प्रांत के तोराना और दुसरे प्रसिद्द दो किलों पर चढ़ाई करके उन्हें प्राप्त कर लिया । बीजापुर की सेना जो की अफजल खान ने नेतृत्व में लड़ रही थी शिवाजी महाराज ने उसका खुल्लम खुल्ला सामना किया ।
शिवाजी अपनी चतुराई से कभी पीछे हटते कभी अचानक शत्रुओं पर चढ़ जाते थे। इस प्रकार वह मुग़ल सरदारों व् सेनापतियों को सदैव पराजित करते गए। शत्रुओं में शिवाजी महाराज का ऐसा भय समा गया की खुद औरगजेब ने दक्खन में कुछ समय के लिए युद्ध बंद कर देने में अपनी भलाई समझी।
स्वतंत्र छत्रपति का राज्याभिषेक
औरंगजेब ने अपने कपट जाल में शिवाजी महाराज को फंसाने का फैसला किया और शिवाजी महाराज को अपने किले में छल से कैद कर लिया। किन्तु शिवाजी ने उस कपट जाल को तोड़ कर अपनी रायगढ़ किले में वापसी की । और इस बार दुगुनी ताक़त से मुग़लो के रणभूमि में छक्के छुड़ा दिए । इस दौरान सिंघगढ़ का किला भी उनके अधिकार में आ गया । अंत में शिवाजी महाराज का रायगढ़ किले में धूम धाम से राज्याभिषेक हुआ। और अब वह समस्त हिन्दू प्रजा के छत्रपति बन चुके थे । विजयनगर साम्राज्य के पतन के पश्चात किसी हिन्दू राजा का यह साहस न हुआ था की स्वतंत्र छत्रपति का मुकुट अपने शीश पर धारण करे । लेकिन इस नवीन राज्याभिषेक ने मुग़लों की धाक को समूल नष्ट कर दिया था। यह धर्मयुद्ध परमात्मा के नाम पर आरम्भ हुआ था । इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर शिवाजी महाराज एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए तो उन्होंने अपने इस ईश्वरदत्त राज्य को अपने आध्यात्मिक व् राजनैतिक गुरु श्री रामदास जी के चरणों में श्रद्धापूर्वक भेंट कर दिया । किन्तु स्वामी जी ने उसी ध्येय को स्मरण करके वह वह राज्य अपने सुयोग्य शिष्य शिवाजी को हिन्दू जाति के कल्याण हेतु प्रसादस्वरूप न्योछावर कर दिया, और कहा "यह राज्य शिवाजी का नहीं,बल्कि धर्म का है"।
मराठाओ द्वारा प्रारम्भ किया गया यह आंदोलन अपने प्रारंभिक काल से ही समस्त हिन्दू जाति हेतु समर्पित था। इसका सबसे बड़ा प्रमाण इस बात से मिलता है जब कर्नाटक के सवनूर जिले में मुस्लिम नवाब से पीड़ित हिन्दू प्रजा अपना करुणा से भरा पत्र शिवाजी को लिखती है। और शिवाजी अपने सेनापति हमीरराव को भेजकर उस अन्यायी नवाब को दंड देते हैं और हिन्दू प्रजा को मुक्त करवा देते हैं । और सिर्फ दक्षिण ही नहीं उत्तर भारत के हिन्दू भी शिवाजी के लिए अटूट श्रध्दा रखते थे। जिसका वर्णन "शिवा बावनी" नामक छन्द काव्य में मिलता है जिसको बुंदेलखंड निवासी राजकवि "भूषण" ने लिखा था। वह लिखतें हैं ,
काशी की कला जाती, मथुरा मस्जिद होती|
शिवाजी न होते तो , सुन्नत होती सबकी ||
इस प्रकार हिन्दू धर्म और हिन्दू पद पादशाही के नाम पर यश पैदा करने वाला आव्हान और युद्ध संगीत जो महाराष्ट्रीय दुंदुभि से निकला, वह सह्याद्रि पर्वत की चोटी से निकलकर सारे भारत वर्ष के हिन्दुओ के ह्रदय में भर गया।
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